Saturday, April 30, 2011

गुड़ियों से खेलती बच्ची 
   नहीं जानती
  गुड़ियों का खेल है
 उसकी जिन्दगी
 यहीं से खिचती है i  
 एक लक्छ्मन रेखा
 जिसके पार वह
 लड़की है
 लड़की अर्थात गाय
 जो प्रतिवाद में 
 फटकारती नहीं सींग
 मरकही की संज्ञा पा
 वंचित न हो जाये खूंटे से
 इसीलिए घुमती है
 खूंटे के इर्द गिर्द

तिरंगा

 तिरंगा
  हवा में लहराता तिरंगा
 पूछता है मुझसे
  आखिर कब तक
  मैं ढोऊंगा
 इन रंगों का भार
  कब तक फहराऊंगा मैं
 यूँ ही निरर्थक 
 कब? आखिर कब ?
 समझोगे तुम 
 इन रंगों का महत्व ?

Thursday, April 7, 2011

मेरे शहर की पगली


मेरे शहर में
 रहती थी एक पगली 
 धूल मिट्टी से सनी
  नंगी देह लिए
 डोली थी वह .
 असाधारण नहीं था 
 उसका यूँ  नंगी डोलना
 अपने आप से यूँ ही बोलना .
 असाधारण तो है
 उसका मरना
 वह मरी न थी
 शीत और ताप से .
 भूख में भी बची रही थी
 उसकी जिजीविषा .
 मगर आज मर दिया उसे 
 उसकी ही देह ने
 पागल ही सही 
  उसके पास एक
 देह तो थी
 देह जो हर
 हाल में
 होती है
 सिर्फ और सिर्फ देह

Saturday, April 2, 2011

श्रद्धा
 प्राकृतिक है 
 कृत्रिम नहीं 
 पनपती है जमीन में
 फूटता है अंकुर
 हिर्द्यतल से
 हल्की सी चोट से
 टूटता पल में
 बेशक गमला कीमती होता है
 और बिकाऊ भी 
 श्रद्धा अमूल्य है
 बिकती नहीं
 और इसीलिए वह
 गमले में पनपती नहीं