Saturday, August 20, 2011

वह औरत

  भरी दोपहर में वह
 बुन रही है ठंडक 
 खस के तिनकों को 
 बाँधती आँखें
 छण भर देखती हैं
  तपते सूरज को
  फिर सहेजने लगती हैं
   खस के बिखरे तिनके
    अपनी काया को तपाकर वह
       सहेज रही है ठंडक
 उनके लिए जो 
  डरते हैं
  सूरज की आँच से

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