Tuesday, November 27, 2012

चाहा था मैंने
तुम आओ
जीवन में ऐसे
जैसे आती है ह्वा
जैसे आती है
भोर की पहली किरण
जैसे फूटता है अंकुर
निः अब्द नीरव
 जैसे  खिलता है फूल
अपनी खुशबू में झूमता हुआ
मगर तुम तो आये
आंधी की तरह
मेरे वजूद को झकझोरते
तप्त सूरज की तरह
छोड़े तुमने
अनगिन निशान
झुलस गईं मेरी
सारी  आशाएं
फिर भी निःशेष
नहीं हुआ है सब कुछ
बाकि है अभी भी
थोड़ी सी नमी और
आज भी चाहती हूँ मैं कि
तुम आओ ऐसे जैसे .................

Sunday, October 28, 2012

मत जलाओ दीप आज
अँधेरा रहने दो
रौशनी हमें बाँट देती है
मैं और तुम में
बना देती है  हमें
इस अमानिशा में आज
बस मानस प्रकाश ही झरने दो
 नैन दीप में तुम
 भर दो  इतना स्नेह
 करे पलायन  अंधकार
बस एक दीप ही जलने दो
अब एक दीप ही जलने दो  

Saturday, August 4, 2012

 सोचा मैंने
लिखूँ एक कविता
हरी मखमली घास पर
मगर पशुओं ने
चर ली सारी घास
फिर सोचा
घास नहीं तो
चिड़िया  पर लिखूँ
आकाश में उन्मुक्त
विचरती चिड़िया
मगर बाजों ने
नोच लिए सारे पंख
फिर फूल ,नदी ,और निर्झर
मरते रहे लगातार
अब चुने हैं मैंने
 पत्थर
लिख रही हूँ मैं
पत्थरों  पर
कविता पत्थरों की

Tuesday, June 26, 2012

पिता ! क्या हिटलरी आन थी उनकी
सारा घर घूमता था
उनके इर्द गिर्द
वे कहीं भी रहें
सब कुछ चलता रहता था
उनके अनुसार
कभी - कभी होती थी
बहुत कोफ़्त
उनकी  हिटलरी पे
बहुत बाद में जाना
पिता होने का अर्थ 
मर्यादा की डोर
पर चलते पिता
बहुत बहुत
 याद आते हैं अब 

Saturday, June 2, 2012

बीत गये दिन
सुहानी शाम के
बढने  लगी है
अब तो तपन

धधकते हैं दिन
अब भट्ठी जैसे
और रात खौलती
जैसे खौलता अदहन

जलती ये धरती
और जलता अम्बर
चहुँओर लगी है
बस अगन- अगन
 
ठिठक गयी  यूँ
ये जेठ दुपहरी
ठिठक रही हो
जैसे कोई दुल्हन

मन का पंछी
अब व्याकुल - व्याकुल
अति व्याकुल सब
चिरई  अउ चिरमुन

तपकर जेठ चला जाएगा
बरसेंगे आषाढी बादल
हरियाएगी धरती सारी
हरियायेगें सबके मन

Sunday, May 6, 2012

पहाड़ होते हैं
सैलानियों के सैरगाह
चमकती धवल चोटियाँ
कलकल करती नदियाँ  और झरने
सोख लेते हैं
उनका सारा तनाव
खुशियों से झोली भर
लौट जाते हैं वे
वे देखते हैं
पहाड़ के मुख पर
चस्पा मुस्कान
नहीं देख पाते
उसका मन
और उसमें छिपी पीड़ा
पहाड़ जैसी होती है
पीड़ा पहाड़ की


Thursday, April 19, 2012

सपने देखे तो बहुत
मगर बिखर गये ऐसे
तट से टकराकर जैसे
बिखर जाती हैं लहरें
 चुने थे कुछ फूल
मगर समय की आँधी में
कब तक टिकते भला
बिखर गयीं  पंखुरियां
बनाया फिर शीश महल
पर वह भी चूर -चूर
सह न सका
पत्थर जमाने के
मगर खत्म नहीं हुआ है
सब कुछ
अभी भी शेष हैं
आशाओं की ईंट
 और  इरादों की सीमेंट
गढ़ना हैअपना  वजूद
कुछ ऐसा कि वह
थिर रहे आँधियों में
और सह सके पत्थर
जमाने के   

Sunday, April 15, 2012

मन के  आगन में
व्यतीत ने उकेरे
अनेक चित्र
मिटकर भी मिटे नहीं
बदरंग हो कर भी
रहे हमेशा
मन के  आस पास
चाँद छूने की आभिलाषा में
हर बार मिले
घोंघे और खाली सीपियाँ
सागर की लहरों सी मैं
बिखरती रही
बार बार



Monday, April 9, 2012

शब्द हूँ मैं

फूल नहीं हूँ
कि कुचलकर  मसलकर
मिटा दोगे मेरा वजूद
शब्द हूँ मैं
जितनी कोशिश करोगे
मिटाने की
उतनी ही प्रखरता से
उभरेगा मेरा अर्थ
हर बार
बार बार लगातार 

Tuesday, March 27, 2012

इक्कीसवी सदी के
द्वार पर खड़ी औरत
देख रही है पीछे .........
आँखों में उभरती हैं
अख़बार की सुर्खियाँ ........
एक अस्सी वर्ष की
वृधा से बलात्कार
जिन्दा जलाई जाती
नव विवाहिताओं की  चित्कार
इक्कीसवीं सदी में भी
क्या ऐसा ही होगा मेरे साथ
पूछ रही है औरत
 

Thursday, March 1, 2012

इंतजार

अबकी फागुन ने
भर दिए हैं रंग
टेसू  के फूलों में
बूढ़े हाथों ने
तोड़े हैं फूल
बनाया है रंग
उन फूलों से 
दूंढ ली है
छोटी सी पोटली
अबीर की
अबकी आएगा बेटा
परदेश से
मनायेगा त्यौहार
गाँव में
बूढ़ी आँखें
कर रही हैं इंतजार
फागुन के आने का 
 

Wednesday, January 11, 2012

नया वर्ष

अपनी झोली में
सपने लेकर
फिर आया है
नया वर्ष
लोग तोल रहे हैं
उन सपनों को
अपने अपने सपने
बाँटने की लगी है होड़
मैं भी खड़ी हूँ
उसी कतार में
मगर आँखों में
उभर आया है विगत
बीते वर्ष के जख्म
टीसने लगे हैं अब
फिर भी मैं
खड़ी हूँ उसी कतार में
कुछ सपने तो आयेंगे
मेरे भी हिस्से
खड़ी हूँ इंतजार में